pub-6060657613211314
हि‍मशिक्षा शैक्षिक समाचारों/ सूचनाओं और विचार विमर्श का स्‍वैच्छिक, गैर सरकारी और अव्‍यवसायिक मंच। आप शैक्षिक लेख शिक्षा से जुड़ी जानकारी और अपनी पाठशाला की गतिविधियों की जानकारी इस मंच पर सांझा कर सकते है। हिमशिक्षा के लिए शैक्षिक गतिविधियों को प्रेषित करें। आप भी इस मंच को सहयोग दे सकते है आप सम्‍पर्क करें हिमशिक्षा की जानकारी आप मेल से अपने मित्रों को दें सकते है आपका ये कदम हमें प्रोत्‍साहित करेगा Email this page

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस

 


 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस
(साभार... - भाई विशाल अग्रवाल की कलम से...)

देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले क्रांतिकारियों का जब जब जिक्र होगा, 1911 से 1945 तक अनवरत अपने आपको भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए तिल तिल गलाने वाले महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस (Ras Bihari Bose) का नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाता रहेगा, जिनका 25 मई को जन्मदिवस है। रासबिहारी ब्रिटिश राज के विरुद्ध गदर षडयंत्र एवं आजाद हिन्द फौज के प्रमुख संगठनकर्ता थे। इन्होंने न केवल भारत में कई क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि विदेश में रहकर भी वह भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रयास में आजीवन लगे रहे। दिल्ली में वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने, गदर की साजिश रचने और बाद में जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेस लीग और आजाद हिंद फौज की स्थापना करने में रासबिहारी बोस की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

रासबिहारी बोस का जन्म 25 मई 1886 को बंगाल में बर्धमान के सुबालदह गांव में विनोदबिहारी बोस के यहाँ हुआ था। विनोदबिहारी जी नौकरी के सिलसिले में चन्दननगर रहने लगे थे और यहीं से रासबिहारी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पूरी हुयी। वे बचपन से ही देश की स्वतन्त्रता के स्वप्न देखा करते थे और क्रान्तिकारी गतिविधियों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। 1908 में अलीपुर बम मामले में अपना नाम आने की ख़बरों के बाद इससे बचने के लिए बंगाल छोड़ने के बाद प्रारंभ में रासबिहारी बोस ने शिमला पहुँच कर एक छापेखाने में नौकरी की। उसके बाद देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक रसायन विभाग के संशोधन सहायक के पद पर कार्य किया।

वास्तविकता ये है कि फ्रेंच आधिपत्य वाले चन्दन नगर में रहकर बम बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके रास बिहारी बोस इस शोध संस्थान में नौकरी बम निर्माण के लिए आवश्यक रासायनिक पदार्थ को प्राप्त करने के लिए कर रहे थे। उसी दौरान उनका क्रांतिकारी जतिन मुखर्जी के अगुवाई वाले युगातंर के अमरेन्द्र चटर्जी से परिचय हुआ और वह बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ जुड़ गए। बाद में वह अरबिंदो घोष के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश), और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रान्तिकारियों के निकट आये और इस प्रकार शीघ्र ही वे कई राज्यों के क्रातिकारियों के संपर्क में आ गए।

इसी दौरान बंगाल में क्रान्तिकारियों के बढ़ते दबाव के कारण अंग्रेजों ने भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली में स्थानांतरित कर दी। रास बिहारी बोस ने अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न करने के लिए तत्कालीन वायसराय हार्डिंग पर फेंकने की योजना चन्दन नगर में आकर बनाई। योजना को क्रियान्वित करने के लिए 21 सितम्बर 1912 को अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसंत कुमार विश्वास दिल्ली के क्रांतिकारी अमीरचन्द के घर आ गये। दूसरे दिन 22 सितम्बर को रास बिहारी बोस भी दिल्ली आ गये। 23 दिसंबर को शाही शोभायात्रा निकाली गयी जिसमें हाथी पर वायसराय हार्डिंग्स सपत्नीक सवार था। साथ ही अंगरक्षक मैक्सवेल महावत के पीछे और हौदे के बाहर छत्रधारी महावीर सिंह था।



(चित्र में क्रान्तिधर्मा रासबिहारी बोस अपनी जीवन सहचरी तोशिके के साथ हैं।)

लोग सड़क किनारे खड़े होकर,घरों की छतों-खिड़कियों से इस विशाल शोभा यात्रा को देख रहे थे। शोभा यात्रा चांदनी चौक के बीच स्थित पंजाब नेशनल बैंक के सामने पहुंची ही थी कि एकाएक भंयकर धमाका हुआ। बसन्त कुमार विश्वास ने उन पर बम फेंका लेकिन निशाना चूक गया। इस बम विस्फोट में वायसराय को हल्की चोटें आई पर छत्रधारी महावीर सिंह मारा गया। वायसराय को मारने में असफल रहने के बावजूद रास बिहारी बोस अंग्रेज सरकार के मन में भय उत्पन्न करने में कामयाब हो गये।

बम विस्फोट के अपराधियों को पकड़वाने वालों को एक लाख रूपये पुरस्कार की घोषणा सरकार की तरफ से की गई। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गयी पर वह बचने के लिये रातों-रात रेलगाडी से देहरादून खिसक लिये और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा बुलायी, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा भी की। इस प्रकार उन पर इस षडयन्त्र और काण्ड का प्रमुख सरगना होने का किंचितमात्र भी सन्देह किसी को न हुआ। हालाँकि इस बम कांड में शामिल अन्य सभी क्रांतिकारी पकड़ लिए गए जिनमें मास्टर अमीर चंद्र, भाई बाल मुकुंद और अवध बिहारी को 8 मई 1915 को फांसी पर लटका दिया गया, जबकि वसंत कुमार विश्वास को अगले दिन 9 मई को फांसी दी गई।

1913 में बंगाल में बाढ़ राहत कार्य के दौरान रासबिहारी बोस जतिन मुखर्जी के सम्पर्क में आए जिन्होंने उनमें नया जोश भरने का काम किया और जिसके बाद वो दोगुने उत्साह पूरी तरह से क्रान्तिकारी गतिविधियों के संचालन में लग गए। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिये उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका में स्थापित गदर पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर ग़दर की योजना बनायी। युगान्तर के कई नेताओं ने सोचा कि यूरोप में युद्ध होने के कारण चूँकि अभी अधिकतर सैनिक देश से बाहर गए हुये हैं, अत: शेष बचे सैनिकों को आसानी से हराया जा सकता है। रासबिहारी की सहायता के लिए बनारस में शचीन्द्रनाथ सान्याल थे ही, अमेरिका से गदर पार्टी के विष्णु गणेश पिंगले भी आ गये।

पिंगले को गदर पार्टी ने रास बिहारी बोस की सहायता से पंजाब में क्रान्तिकारियों को संगठित करने के लिए भेजा था। पिंगले से मिलने के बाद बोस के साथी सान्याल पंजाब गये और उनके प्रयासों से 31 दिसम्बर 1914 को अमृतसर की पीरवाली धर्मशाला में क्रान्तिकारियों की गुप्त-बैठक हुई। पिंगले व सान्याल के साथ इस बैठक में करतार सिंह सराभा, पंडित परमानन्द, बलवन्त सिंह, हरनाम सिंह, विधान सिंह, भूला सिंह आदि प्रमुख लोग उपस्थित थे। बाद में प्रयासों को गति देने हेतु रास बिहारी बोस भी जनवरी 1915 में पंजाब आये। करतार सिंह सराभा गज़ब के उत्साही और जोशीले थे जिन्होंने रास बिहारी बोस के साथ मिल कर सम्पूर्ण भारत में पुनः एक बार गदर करने की योजना बनाई। तारीख तय हुई--- 21 फरवरी 1915।

देश के सभी क्रान्तिकारियो में जोश की लहर दौड़ पड़ी। सर्वत्र संगठन किया जाने लगा लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। पंजाब पुलिस का जासूस सैनिक कृपाल सिंह क्रांतिकारियों की पार्टी में शामिल हो चुका था। पैसे के लिए उसने अपना जमीर बेच दिया और समस्त तैयारी की सूचना अंग्रेजों को दे दी। परिणामस्वरूप समस्त भारत में धर पकड़, तलाशियाँ और गिरफतारियां हुईं। इस प्रकार दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास भी असफल रहा और कई क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसी स्थिति मे गदर की योजना विफल हो जाने के बाद रास बिहारी बोस ने लाहौर छोड़ दिया। पर इतना अवश्य कहा जाएगा कि सन 1857 की सशस्त्र क्रांति के बाद ब्रिटिश शासन को समाप्त करने का इतना व्यापक और विशाल क्रांतिकारी संघटन एवं षड्यंत्र नहीं बना था और ये रासबिहारी जैसे व्यक्ति के ही वश की बात थी।

उनके अनेक सरकार विरोधी कार्यों के बाद ब्रिटिश खुफिया पुलिस ने रासबिहारी बोस को भी पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह उनके हत्थे नहीं चढ़े और लाहौर से बनारस और फिर चन्दन नगर आ कर रहने लगे। यहाँ रास बिहारी बोस ने पराधीन देशों का इतिहास पढ़ा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि बिना किसी अंतर्राष्टीय मदद के कोई भी पराधीन देश स्वतन्त्रता नहीं प्राप्त कर सका है। ऐसे में वे भी विदेशों से सहायता ले भारत को मुक्त कराने के बारे में सोचने लगे। इसी समय गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जापान जाने वाले थे जिसे रास बिहारी ने भारत से बाहर जाने का स्वर्णिम अवसर समझा।

गुरूदेव के पहुँचने के पहले जापान पहुँच कर व्यवस्था देखने का इरादा बता कर, वे जून 1915 में राजा प्रियनाथ टैगोर के नाम से जापान पहुँच गए, जिसके बाद वे वहां के अपने जापानी क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकर देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे। उन्होंने जापान में अंग्रेजी के अध्यापन के साथ लेखक व पत्रकार के रूप में भी काम प्रारम्भ कर दिया और न्यू एशिया नाम से एक समाचार-पत्र भी निकाला। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने जापानी भाषा भी सीखी और 16 पुस्तकें लिखीं जिनमें 15 अब भी उपलब्ध हैं।

ब्रिटिश सरकार अब भी उनके पीछे लगी हुई थी और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की मांग कर रही थी, इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी पहचान और आवास बदलते रहे। जापान सरकार ने इस माँग को मान भी लिया था किंतु जापान की अत्यंत शक्तिशाली राष्ट्रवादी संस्था ब्लेड ड्रैगन के अध्यक्ष श्री टोयामा ने श्री बोस को अपने यहाँ आश्रय दिया। इसके बाद किसी जापानी अधिकारी का साहस न था कि श्री बोस को गिरफ्तार कर सके। 1916 में जापान में ही रासबिहारी बोस ने प्रसिद्ध पैन एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री से विवाह कर लिया और 1923 में वहां के नागरिक बन गए।

जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्ष में खड़ा करने और देश की आजादी के आंदोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में भी रासबिहारी बोस की भूमिका अहम रही। साथ ही वे भारतीय क्रांतिकारियों और नेताओं से भी संपर्क बनाए रहे और भारत में हो रही हर गतिविधि पर उनकी पैनी नजर रही। 1938 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस (Subhash Chandra Bose) के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर उन्हें लिखा रासबिहारी जी का पत्र इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है, जिसे इस लेख के बड़ा हो जाने के बाद भी मैं यहाँ देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।

मेरे प्रिय सुभाष बाबू,
भारत के समाचार पत्र पाकर मुझे यह सुखद समाचार मिला है कि आगामी कांग्रेस सत्र के लिए आप अध्यक्ष चुने गये है । मैं हार्दिक शुभकामनायें भेजता हूँ । अंग्रेजों के भारत पर कब्जा करने में कुछ हद तक बंगाली भी जिम्मेदार थे । अतः मेरे विचार से बंगालियों का यह मूल कर्तव्य बनता है कि वे भारत को आजादी दिलाने में अधिक बलिदान करें। देश को सही दिशा में ले जाने के लिए आज कांग्रेस को क्रांतिकारी मानसिकता से काम लेना होगा । इस समय यह एक विकासशील संस्था है - इसे विशुद्ध क्रांतिकारी संस्था बनाना होगा । जब पूरा शरीर दूषित हो तो अंगों पर दवाई लगाने से कोई लाभ नहीं होता.

अहिंसा की अंधी वंदना का विरोध होना चाहिये और मत परिवर्तन होना चाहिये । हमें हिंसा अथवा अहिंसा - हर संभव तरीके से अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहिये । अहिंसक वातावरण भारतीय पुरूषों को स्त्रियोचित बना रहा है । वर्तमान विश्व में कोई भी राष्ट्र यदि विश्व में आत्म सम्मान के साथ जीना चाहता है तो उसे अहिंसावादी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये । हमारी कठिनाई यह है कि हमारे कानों में बहुत लम्बे समय से अन्य बातें भर दी गयी है । वह विचार पूरी तरह निकाल दिया जाना चाहिये ।
शक्ति आज की वास्तविक आवश्यकता है । इस विषय पर आपको अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिये । डॉ. मुंजे ने अपना मिलेटरी स्कूल स्थापित करके कांग्रेस की अपेक्षा अधिक कार्य किया है । भारतीयों को पहले सैनिक बनाया जाना चाहिये । उन्हें अधिकार हो कि वे शस्त्र लेकर चल सकें । अगला महत्वपूर्ण कार्य हिन्दू - भाईचारा है । भारत में पैदा हुआ मुस्लिम भी हिन्दू है, तुर्की, पर्शिया, अफगानिस्तान आदि के मुसलमानों से उनकी इबादत - पद्धति भिन्न है। हिन्दुत्व इतना कैथोलिक तो है कि इस्लाम को हिन्दुत्व में समाहित कर ले - जैसा कि पहले भी हो चुका है । सभी भारतीय हिन्दू है -हालांकि वे विभिन्न धर्मो में विश्वास कर सकते है। जैसे कि जापान के सभी लोग जापानी है, चाहे वे बौद्ध हों, या ईसाई.

हमें यह मालूम नहीं है कि जीवन कैसे जीया जाये और जीवन का बलिदान कैसे किया जाये । यही मुख्य कठिनाई है । इस संदर्भ में हमें जापानियों का अनुसरण करना चाहिये । वे अपने देश के लिए हजारों की संख्या में मरने को तैयार है । यही जागृति हम में भी आनी चाहिये । हमें यह जान लेना चाहिये कि मृत्यु को कैसे गले लगाया जा सकता है । भारत की स्वतंत्रता की समस्या तो स्वतः हल हो जायेगी ।
का शुभाकांक्षी,
रास बिहारी बोस
25-1-38 टोकियो

इस समय तक संसार पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल मंडराने लगे थे और ऐसे में भारत में वीर सावरकर विभिन्न प्रान्तों और नगरों में जा-जाकर भारतीयों को उनके अस्तित्व के प्रति जागरूक रहने का आह्‌वान करते हुए सैनिकीकरण की बात पर जोर दे रहे थे। इसी दौरान 22 जून 1940 को नेता जी सुभाषचन्द्र उनसे मिलने बम्बई पहुँचे। भेंट के समय नेता जी ने कलकत्ता में हॉलवेल व अन्य अंग्रेजों की मूर्तियॉं तोड़ने की अपनी योजना से उन्हें अवगत कराया। यह सुनकर सावरकर जी बड़े गम्भीर भाव से बोले-- "मूर्तिभंजन जैसे अतिसाधारण अपराध के कारण आप सरीखे तेजस्वी और शीर्षस्थ राष्ट्रभक्तों को जेल में पड़े-पड़े सड़ना पड़े, यह मैं ठीक नहीं समझता। सफल कूटनीति की मांग है कि स्वयं को बचाते हुए शत्रु को दबोचे रखना। ब्रिटेन आजकल युद्ध के महासंकट में फॅंसा है, हमें इससे पूरा लाभ उठाना चाहिए। यह देखिये श्री रासबिहारी बोस का गुप्त पत्र, जिसके अनुसार जापान कभी भी युद्ध में शामिल हो सकता है। ऐसे ऐतिहासिक अवसर को हाथ से मत जाने दो। आप भी रासबिहारी बोस आदि क्रान्तिकारियों की तरह अंग्रेजों को चकमा देकर विदेश खिसक जाइये और उचित समय आते ही जर्मन-जापानी सशस्त्र सहयोग प्राप्त कर, देश की पूर्वी सीमा की ओर से ब्रिटिश सत्ता पर आक्रमण करने का मनसूबा बनाइये। ऐसे सशस्त्र प्रयास के बिना देश को कभी स्वाधीन नहीं कराया जा सकता।'' यह सब तन्मयता से सुनकर पुनर्मिलन की आशा व्यक्त करते हुए नेताजी ने विदा ली। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप वे जर्मनी जाकर सिंगापुर पहुँचे और आज़ाद हिन्द फौज एवं सरकार का गठन किया, यह विश्वविदित है।

उधर रासबिहारी ने 28 मार्च 1942 को टोक्यो में एक सम्मेलन बुलाया जिसमें इंडियन इंडीपेंडेंस लीग की स्थापना का निर्णय किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक सेना बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया। 22 जून 1942 को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमन्त्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चे पर कई भारतीय युद्धबन्दियों को पकड़ा था।

इन युद्धबन्दियों को इण्डियन इण्डिपेण्डेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी (आई०एन०ए०) का सैनिक बनने के लिये प्रोत्साहित किया गया। इसी के बाद आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन रासबिहारी बोस की इंडियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में सितंबर 1942 को किया गया। रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्य कमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आईएनए के नेतृत्व से हटा दिया लेकिन आईएनए का संगठनात्मक ढांचा बना रहा। बाद में इसी ढांचे पर सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आईएनएस का पुनर्गठन किया।

स्थिति हाथ से जाती देख रासबिहारी बोस ने जापान सरकार से अनुरोध किया कि नेताजी को जल्द-से-जल्द जर्मनी से जापान बुलाना होगा क्योंकि आई.एन.ए. को नेतृत्व वही दे सकते हैं, कोई और नहीं। जापानी ग्राउण्ड सेल्फ-डिफेन्स के लेफ्टिनेण्ट जेनरल सीजो आरिसु (Seizo Arisu) ने रासबिहारी बोस से पूछा-- क्या आप नेताजी के अधीन रहकर काम करने के लिए तैयार हैं? कारण कि रासबिहारी बोस उम्र में नेताजी से ग्यारह साल बड़े थे , और आजादी के संघर्ष में भी उनसे बहुत वरिष्ठ। रासबिहारी बोस का जवाब था कि देश की आजादी के लिए वे सहर्ष नेताजी के अधीन रहकर काम करेंगे।

तब जर्मनी में जापान के राजदूत जनरल ओशिमा को सन्देश भेजा गया और नेताजी को जर्मनी से जापान भेजने के प्रयास तेज हो गए। हाँ, दूतावास में जापानी मिलिटरी अटैश के श्री हिगुति (Mr. Higuti) नेताजी से यह पूछना नहीं भूले कि वे रासबिहारी बोस के अधीन रहकर काम करना पसन्द करेंगे या नहीं? नेताजी का जवाब था कि व्यक्तिगत रुप से तो वे रासबिहारी बोस को नहीं जानते; मगर चूँकि वे टोक्यो में रहकर भारत की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, इसलिए वे (नेताजी) खुशी-खुशी उनके सिपाही बनने के लिए तैयार हैं। आजादी के संघर्ष के दो महानायक एक-दूसरे के अधीन रहकर देश की आजादी के लिए काम करने को तैयार हैं- यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसे हमारे देश के विद्यार्थियों को जरूर पढ़ाया जाना चाहिए। मगर अफसोस, हमारे बच्चों को सत्ता हासिल करने के लिए अपने ही बाप भाइयों को क़त्ल कर देने वाले बादशाहों के किस्से तो पढाये जाते हैं पर इन निस्पृह बलिदानियों के बारे में एक शब्द भी नहीं।

4 जुलाई 1943 को सिंगापुर के कैथे भवन में रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज की कमान सुभाष चन्द्र बोस को सौंपी। सुभाष चन्द्र बोस ने सर्वोच्च सलाहकार के पद पर रास बिहारी बोस को आग्रहपूर्वक रखा। पर अब तक आजीवन संघर्ष व जीवन सहचरी तोशिको तथा पुत्र माशेहीदे के निधन से रास बिहारी बोस का मन व शरीर दोनो टूट चुके थे। नवम्बर 1944 में सुभाष चन्द्र बोस जब रास बिहारी बोस के पास आये तब तक उनकी हालत बहुत खराब चुकी थी। स्थिति बिगडने पर जनवरी 1945 में उन्हें सरकारी अस्पताल टोकियो में उपचार हेतु भर्ती कराया गया।

इसी समय जापान के सम्राट ने उगते सूर्य के देश के दो किरणों वाले द्वितीय सर्वोच्च राष्टीय सम्मान 'आर्डर ऑफ़ राइजिंग सन’ से रास बिहारी बोस को विभूषित किया। भारत को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की जी तोड़ मेहनत करते हुए और इसकी ही आस लिए 21 जनवरी 1945 को रास बिहारी बोस का निधन हो गया। जापान ने तो इस अमर बलिदानी के जज्बे और संघर्ष को भरपूर सम्मान दिया पर ये कृतघ्न देश उन्हें कुछ ना दे पाया। किसी ने सही कहा है कि-----

जारी रहा क्रम यदि, यूं ही अमर शहीदों के अपमान का।
तो अस्त ही समझो सूर्य, भारत भाग्य के आसमान का।
इस महान हुतात्मा को उनके जन्मदिवस पर कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|


शिक्षा व्यवसाय नही बल्कि हमारा गौरव है-- देव दत्त शर्मा,कसौली, हिमाचल प्रदेश

हालातों को देखते हुए सरकार को कुछ सख्त कदम उठाने होंगे और शिक्षा मौलिक आधार का अक्षरहाक्षर पालन अनिवार्य किया जाना चाहिए। प्रत्येक भी • जनता बच्चे तक अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा को आम करना चाहिए कि भी व्यापारी लूट सूरत में कोई भी भा का कोई भी आदमी शिक्षा व्यवसायी बन कर भोले भाले अभिभावकों को शिक्षा के नाम पर न ही उनसे बेवकूफ न बना सके और न कर सके। इस मनमानी फीस वसूल कर

आयाम भी होते हैं, परन्तु हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि बिना शिक्षा के किसी देश, राज्य या परिवार की प्रगति संभव हो ही नहीं सकती। शिक्षा के बिना मानव पूछ विहीन पशु के समान है, हा संस्कृति के में सहायक होती है निर्माण में और मानव को अन्य चौरासी लाख मचा प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ भी बनाती है।

अब जरा विडंबना देखिए कि लोगों के जीवन को गढ़ने वाली ये पाठशालाएं आजकल एक समृद्ध व्यवसाय का रूप ले चुकी है जिसने अच्छी शिक्षा को पैसे वालों की धरोहर बना कर रख दिया है। अब साधारण तथा मध्यमवर्गीय परिवार इन फाइव स्टार से दीखने वाले स्कूलों को से टकटकी लगाकर ललचाई आंखों देखते हैं और सोचते हैं कि काश, काश

शिक्षा एक जीवन पर्यन्त चलने वाली सतत प्रक्रिया है, जिससे मनुष्य का न केवल बौद्धिक विकास होता है बल्कि उनका बच्चा भी ऐसे स्कूलों में पढ़ पाता। न जरा सोचिए कही हम ही तो इन सब के फूटी अंग्रेजी बोलने में भी स्वयं किया जाए तथा फीस इतनी हो कि निर्धन उसका शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास भी होता है। अनेकों शिक्षाविदों के द्वारा समय समय पर किए गए शोध इस का प्रमाण है। अब

न जाने हम सब अपने बच्चों को किस कोशिश कर रहे है। अधिकतर लोग यह लाये हमारे देश में शिक्षा का महत्व है ये के कमरों में हिंदी में अंग्रेजी माध्यम की सोचते हैं कि जो स्कूल जितना महगा होगा कर भी लेते हैं परंतु गांव देहातों में फीस बसती है, जो निर्धन वर्ग में आती है और वहां पढ़ाई भी उतनी ही उत्तम होगी बस इसी भ्रम में पड़ कर हम अधी बच्चों को करोड़ों बच्चे हर सुबह अपनी पीठ पर अतिशयोक्ति न होगी। आज यदि आज अनुकरणीय दौड़ में दौड़ पड़ते यदि फीस का जुगाड़ हो जाए उसके साथ उन्हें भी शहरियों के बराबर हक मिलना लाभ उठाते हुए खूब मन भावन मन लुभावन सब्जबाग दिखा कर हिप्नोटाइज़ करता है और हम, हम अपने बच्चों को रहा है कि

हा है।

शायद किसी को बताने की जरूरत नहीं है हर रोज ग्रामों और शहरों में भारत के जाते हैं। हर माता-पिता की इच्छा रहती है कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर एक महान और काबिल इंसान बने और दुनिया में के सपनों करने व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका अदा करती संपन्नता उस देश की जनसंख्या के साक्षरता के अतिरिक्त अनेकों अन्य •

है। स्पष्ट सी बात है कि किसी भी देश की साक्षरता अनुपात पर ही निर्भर करती है। यद्यपि संपन्नता को मापने के लिए ये शिक्षा के व्यापारी लोगों की मनःगति बहुत अच्छे से पढ़ चुके है। क्योंकि हर माता पिता अपनी सन्तान को डॉक्टर इंजीनियर से अतिरिक्त कुछ बनाना चाहते ही नहीं है जो बुरी बात भी नहीं परन्तु

केवल शहरों में ये हाल केवल में होता भाता परन्तु आजकल तो, गांवों में भी तो भी र किराये गली मोहल्ले में दो चार पढ़ाई हो रही है। जिसे यदि इंग्लिश न कह कर हिंगलिश माध्यम कहे तो कोई दवाई जाए तो तो हम देखेंगे कि इन स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढ़ने के लिए आते है, क्योंकि बड़ी-बड़ी वसूली की जाती ही अदा कर पाते है।

आज के आधुनिक दिखावे दौर में मनपसंद स्कूल में प्रवेश लेना ही अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। मध्यम पसंद के स्कूल में यदि पढ़ाना चाहे तो चांदी बटोरते हैं। को यदि आपकी इच्छा है तो उसकी फीस

बच्चे की क्षमता को कोई देख नहीं रहा तभी तो आज अच्छी और उच्च शिक्षा का निरन्तर व्यवसायीकरण हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालको के पी बारह हो रहे हैं। वे इसी भावना का लाभ या यूँ कहें शिक्षा के खुले बाज़ार में लूट में पढ़ाने का सपना नहीं देख मचा रखी है।

के हर वर्ष इन शिक्षा की दुकानों में एक तरफ ग्राहक बढ़ रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ स्कूल को फीस बढ़ती ही जा रही है है । क्या कभी किसी ने गौर किया कि जितनी रफ्तार से फीस रही है उतनी बढ़ ही गति से शिक्षा का स्तर भी बढ़ रहा है? मानसिकता का लाभ शायद नही बल्कि ये स्तर दिन प्रतिदिन नीचे नीचे और नीचे ही गिरता जा रहा है। क्या कभी। किसीने सोचा है कि सबके लिये कौन जिम्मेवार है ? नहीं ल लिए जिम्मेदार तो नहीं?

ही आज पच्चास हजार से एक लाख तक अदा करनी पड़ सकती है। यही नहीं यदि आपको अच्छे स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाना है तो आपके बैंक बैलेंस भी अच्छा खासा होना चाहिये अन्यथा आप अपने का इस सकते।

आज पश्चिमी सभ्यता का हम पर पर ऐसा प्रभाव देखने मिलता है कि हम आजकल किसी की भी योग्यता को अंग्रेजी ज्ञान के पैमाने आँकने लगए हैं। जिसको जितनी की इस अंग्रेजी आती है उसको उतना ही बुद्धिमान समझा लगा है। लोगो जाने लगा लाभ उठाते हुए शिक्षा को शिक्षा के इन व्यापारियों ने वेस्टर्न कल्चर कि मोड़ दिया | आजकल लोग तरफ अपनी मातृभाषा या मां बोली को बोलने में शर्म महसूस करने लगे हैं तथा टूटी गौरवान्वित समझने लगे हैं। इस

" शिक्षा के क्षेत्र में इस मनमानी को रोकने के लिए सरकार को चाहिए कि वह सबसे पहले शिक्षा के व्यवसायीकरण पर रोक लगाये। सभी निजी शिक्षण संस्थाओं फीस का ढाँचा सरकार द्वारा स्वयं तय से निर्धन वर्ग के बच्चे भी उन शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर सके जिन में की एक बड़ी आबादी ग्रामीण परिवेश जो इतने साधन संपन्न नहीं है कि शहर जा है। कर भारी भरकम फीस अदा कर सके

जहाँ तक बात है शहरों की वहाँ शिक्षा का व्यवसायी और व्यापारीकरण हो रेस / प्रतिस्पर्धा में आगे निकालने की तो संसाधन पर्याप्त मात्रा में होने के कारण वे दाखिला लेना चाहें क्योंकि भारत देश लोग इस दौड़ में कुछ सफलता हासिल ना होने के कारण कुछ लोग तो अपने स्कूल भेजने में असमर्थ हो गये हैं जो उनकी पहुंच से कास बहुत चाहिए। होते हैं। शिक्षा का व्यवसाय आज इतना फलफूल स्कूल वालों साथ कर दिया है। स्कूल अपने ही किसी सगे सम्बन्धी को उक्त विचार करना होगा कि शिक्षा कोई काम का ठेका दे देते हैं जिससे वो तो वर्गीय परिवार अपने बच्चों को उनकी लाभ लेते ही हैं साथ साथ सम्बन्धी भी इसे गौरव बना कर ही रखना होगा ताकि

दूर आज यदि समय की कोई मांग है तो बो हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार। यदि समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया उनका और अपना नाम खूब रोशन करे में प्रइवेट शिक्षा संस्थाओं के फीस के रूप उसी महंगे रेस का हिस्सा बना देते हैये के साथ पुस्तक और स्कूल ड्रेस का व्यापार तो हमारे युवाओं का भविष्य अंधेरे को और अब भारतीय व्यवसाय नही बल्कि हमारा गौरव है और देश का हर एक बच्चा उपयुक्त और

हमारे स्कूल और हमारे देश की शिक्षा है, जिन्हें केवल पैसे वाले धनाड्य लोग

शायद नहीं पढ़ा सकते क्योंकि बड़े नामी अब स्पष्ट है कि शिक्षा का व्यापारीकरण गुणपूर्ण शिक्षा को ग्रहण कर अपनाऔर स्कूल में नर्सरी कक्षा में यदि प्रवेश दिलाने दिन प्रतिदिन फलफूल रहा है तो इस पर अपने देश का नाम विश्व में रोशन कर अंकुश कैसे लगे? आज शिक्षा के ऐसे सके।

अगर शब्द न होते... जगदीश बाली

 ईश्वर ने इंसान बनाया और उसे ज़ुबान दी, ज़ुबान के साथ ऐसा नायाब स्वरयंत्र दिया दिया जिसका इस्तेमाल वह बोलने के लिए करता है। बोलने के लिए शब्द चाहिए। अपने ख़्यालों के इज़हार के लिए भी शब्द चाहिए। अगर शब्द न होते तो हम अपने ख्यालों को कैसे व्यक्त करते, कैसे कह पाते, कैसे लिख पाते। शब्द न होते तो किताबें न होती और न ही कुछ पढ़ने पढ़ाने को होता। हम आज की तरह एस.एम.एस न कर पाते, न फ़ैसबुक पर कोई अपनी बात लिख कर स्टेटस डाल पाते। न ही कोई वट्सऐप पर चैट कर पाता, न कोई ट्वीट कर कुछ कह पाता। कुछ आड़ी तिरछी लकीरें होतीं और तस्वीरें होतीं। हम केवल फ़ोटो अपलोड कर पाते। हम इतनी सुगमता से पुराने यार दोस्तों को न खोज पाते। तब कुछ याद रह जाता और बहुत कुछ भूल जाता। कुछ भूली-बिसरी बातें शेष रह जाती। ये यादों के अफ़साने कुछ ही समय बाद दफ़्न हो जाते। कुछ अफ़सानों की कबरें होतीं तो कुछ कबरों के अफ़साने होते। ज़रा कल्पना कीजिए! अगर शब्द न होते तो इंसानों की दुनिया कैसी होती।  
 शब्द न होते, तो हम अपनी बात कैसे कह पाते? हमारी भाषा कैसी होती? हम अपने सुख, दुख, खुशी, उत्साह, न्राराज़गी व गुस्से को कैसे व्यक्त करते? हमारी भाषा भी शायद वनों में विचरण करने वाले खग-मृगों की तरह होती। हमारी भाषा पालतु जन्तुओं की तरह होती और आकाश में विचरण करते पंछियों की तरह होती। हम अगर गुस्सा करते, तो कुत्ते की तरह गुर्राते और चिल्लाना चाहते तो शायद उसी की तरह भौंकते। खुश होते तो इसका इज़हार शायद घोड़े की तरह हिनहिना कर करते या फ़िर गधे की तरह ढेंचु ढेंचु करते। ऐसे में इज़हारे मोहब्ब्त कैसे करते? शायद आंखों के ईशारे से ही सब कुछ समझना पड़ता और दिल जीतने का ये हुनर भी सीखना पड़ता क्योंकि न खत लिख पाते न वैलेंटाइन डे पर ग्रीटिंग कार्ड दे पाते। तब प्रेम कहानी तोता-मैना जैसी ही होती। अगर कोई कोयल की तरह कूक पाता तो उसे लता और रफ़ी की तरह अच्छा गायक समझा जाता। तब गीत न होते और अगर संगीत होता तो केवल प्रकृति का संगीत होता। मंद मंद बहती हवा का होता, कल कल करते नालों का होता और झर झर करते झरनों का होता। 
 बिना शब्दों की दुनिया में हम या तो मिस्टर बीन की तरह होते या चार्ली चैपलिन की तरह होते या फ़िर माइम के किसी एक्टर की तरह। हम किसी गूंगे की कल्पना भी कर सकते हैं। टीवी पर केवल ईशारों से ही समाचार दिखाये जाते और सिनेमा के रुपहले पर्दे की कहानी ‘राजा ‘हरीशचंद्र‘ से ‘आलामारा: तक न पहुंचती। तब केवल चार्ली चैपलिन या मिस्टर बीन जैसे ही अदाकार दिखते। शब्दहीन लोकतंत्र में विरोध के नारे न लगते, न कोई लिखित बैनर होते, न तख्तियों के सहारे कोई अपनी भड़ास निकाल पाता। तब शायद आदमी बंदरों के किसी दल की तरह शोर मचाते। ऐसे में कोई ब्यान न दे पाता और न ब्यान पर बवाल होता न सियासत। ऐसे में अभिव्यक्ति की आज़ादी कौन बात करता और क्या बात करता? तब न कोई अखबार होता, न कोई साहित्य होता।  
शब्दों के बगैर दुनिया वास्तव में हमारी दुनिया अधूरी और निरस होती। सचमुच शब्द हमारी दुनिया को कई तरह के रंगों से भरते हैं। ये हमारी ज़िंदगी को नया आयाम देते हैं। शब्दों से हम समझते भी है और समझाते भी हैं। शब्द अपने आप में शक्ति हैं और किसी को भी शक्ति प्रदान करते हैं। ये शब्द आपकी भी शक्ति बन सकते हैं। कोई समझ ले तो एक शब्द भी जीवन बदल देता है, न समझो तो लाखों शब्द भी निरर्थक हैं। शब्द घाव भी देते हैं और घावों पर मरहम भी लगाते हैं। 
 शब्द आज़ाद है, पर उनका चुनाव करने के लिए आपको विवेकपूर्ण होना पड़ेगा। शब्द आप सुनते या पढ़ते ही नहीं, बल्कि वे एहसास दिलाते हैं। शब्दों की शक्ति असीम होती है। शब्द युद्ध और शान्ति दोनों करवाते हैं। कागज़ पर उतारे गए और मुंह बोले गये शब्द दुनिया में उथल पुथल मचा सकते हैं। शब्द धरा पर नहीं, दिलों पर पड़ते हैं और फ़िर बीज बन जाते हैं जिससे महाभारत जैसे युद्ध के भयानक वृक्ष भी अंकुरित हो सकते हैं या फ़िर विश्वशांति के पौधे। शब्द विध्वंसक परमाणु बम भी बन सकते हैं या पीड़ा से मुक्ति और मन को शीतलता देने वाली औषधि भी ।
 बहुत नासमझ होते हैं वो जो कहते हैं - शब्दों में क्या रखा है? इतिहास गवाह है कि दुनिया को दिशा देने वाले वही लोग थे जो शब्दों की अहमियत को समझते थे। अच्छे शब्द बहुमूल्य होते हैं और उनके इस्तेमाल में कोई खर्च नहीं आता। शब्दों के चयन में की गयी चंद लम्हों की गलतियों के कारण सदियों पछताना पड़ता है। ज़ुबान में हड्डी नहीं, परन्तु इससे उगले हुए शब्दों के तीर दिल को भेद कर रख देते हैं। इसलिए शब्दों का सोच समझ कर इस्तेमाल कीजिए। कहा भी है - ख़ुदा को पसंद नहीं सख्तियां ज़ुबान की, इसलिए हड्डी नहीं ज़ुबान की।